पूरा नामवराहमिहिर
जन्मई. 499
जन्म भूमि‘कपिथा गाँव’,  उज्जैन
मृत्युई. 587
अभिभावकपिता- आदित्यदास
संतानपुत्र- पृथुयशा
मुख्य रचनाएँबृहज्जातकबृहत्संहिता और पंचसिद्धांतिका
पुरस्कार-उपाधिमहाराज विक्रमादित्य ने मिहिर को मगध देश का सर्वोच्च सम्मान वराह प्रदान किया।
विशेषवराह मिहिर की मुलाक़ात ‘आर्यभट‘ के साथ हुई। इस मुलाक़ात का यह प्रभाव पड़ा कि वे आजीवन खगोलशास्त्री बने रहे। आर्यभट वराहमिहिर के गुरु थे, ऐसा भी उल्लेख मिलता है।
अन्य जानकारीभविष्य शास्त्र और खगोल विद्या में उनके द्वारा किए गये योगदान के कारण राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने वराह मिहिर को अपने दरबार के नौ रत्नों में स्थान दिया।

वराहमिहिर (अंग्रेज़ीVarāhamihira, जन्म: ई. 499 – मृत्यु: ई. 587) ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ एवं खगोल शास्त्री थे। वराहमिहिर ने ही अपने पंचसिद्धान्तिका नामक ग्रंथ में सबसे पहले बताया कि अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर है। कापित्थक (उज्जैन) में उनके द्वारा विकसित गणितीय विज्ञान का गुरुकुल सात सौ वर्षों तक अद्वितीय रहा। वरःमिहिर बचपन से ही अत्यन्त मेधावी और तेजस्वी थे। अपने पिता आदित्यदास से परम्परागत गणित एवं ज्योतिष सीखकर इन क्षेत्रों में व्यापक शोध कार्य किया। समय मापक घट यन्त्र, इन्द्रप्रस्थ में लौहस्तम्भ के निर्माण और ईरान के शहंशाह नौशेरवाँ के आमन्त्रण पर जुन्दीशापुर नामक स्थान पर वेधशाला की स्थापना – उनके कार्यों की एक झलक देते हैं

जीवन परिचय

वराह मिहिर का जन्म उज्जैन के समीप ‘कपिथा गाँव’ में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पिता आदित्यदास सूर्य के उपासक थे। उन्होंने मिहिर को (मिहिर का अर्थ सूर्य) भविष्य शास्त्र पढ़ाया था। मिहिर ने राजा विक्रमादित्य के पुत्र की मृत्यु 18 वर्ष की आयु में होगी, यह भविष्यवाणी की थी। हर प्रकार की सावधानी रखने के बाद भी मिहिर द्वारा बताये गये दिन को ही राजकुमार की मृत्यु हो गयी। राजा ने मिहिर को बुला कर कहा, ‘मैं हारा, आप जीते’। मिहिर ने नम्रता से उत्तर दिया, ‘महाराज, वास्तव में मैं तो नहीं ‘खगोल शास्त्र’ के ‘भविष्य शास्त्र’ का विज्ञान जीता है’। महाराज ने मिहिर को मगध देश का सर्वोच्च सम्मान वराह प्रदान किया और उसी दिन से मिहिर वराह मिहिर के नाम से जाने जाने लगे। भविष्य शास्त्र और खगोल विद्या में उनके द्वारा किए गये योगदान के कारण राजा विक्रमादित्य द्वितीय ने वराह मिहिर को अपने दरबार के नौ रत्नों में स्थान दिया।

वराह मिहिर की मुलाक़ात ‘आर्यभट‘ के साथ हुई। इस मुलाक़ात का यह प्रभाव पड़ा कि वे आजीवन खगोलशास्त्री बने रहे। आर्यभट वराहमिहिर के गुरु थे, ऐसा भी उल्लेख मिलता है। आर्यभट की तरह वराह मिहिर का भी कहना था कि पृथ्वी गोल है। विज्ञान के इतिहास में वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बताया कि सभी वस्तुओं का पृथ्वी की ओर आकर्षित होना किसी अज्ञात बल का आभारी है। सदियों बाद ‘न्यूटन‘ ने इस अज्ञात बल को ‘गुरुत्वाकर्षण बल’ नाम दिया।

रचनाएँ

वेद के एक अंग के रूप में ज्योतिष की गणना होने के कारण हमारे देश में प्राचीन काल से ही ज्योतिष का अध्ययन हुआ था। वेद, वृद्ध गर्ग संहिता, सुरीयपन्नति, आश्वलायन सूत्र, पारस्कर गृह्य सूत्र, महाभारत, मानव धर्मशास्त्र जैसे ग्रंथों में ज्योतिष की अनेक बातों का समावेश है। वराह मिहिर का प्रथम पूर्ण ग्रंथ ‘सूर्य सिद्धांत’ था जो इस समय उपलब्ध नहीं है। वराह मिहिर ने ‘पंचसिद्धांतिक’ ग्रंथ में प्रचलित पांच सिद्धांतों- पुलिश, रोचक, वशिष्ठ, सौर (सूर्य) और पितामह का हेतु रूप से वर्णन किया है। उन्होंने चार प्रकार के माह गिनाये हैं –

  1. सौर,
  2. चन्द्र,
  3. वर्षीय और
  4. पाक्षिक।

भविष्य विज्ञान इस ग्रंथ का दूसरा भाग है। इस ग्रंथ में लाटाचार्य, सिंहाचार्य, आर्यभट, प्रद्युन्न, विजयनन्दी के विचार उद्धृत किये गये हैं। खेद की बात है कि आर्यभट के अतिरिक्त इनमें से किसी के ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं।

वराह मिहिर के कथनानुसार ज्योतिष शास्त्र ‘मंत्र’, ‘होरा’ और ‘शाखा’ इन तीन भागों में विभक्त था। होरा और शाखा का संबंध फलित ज्योतिष के साथ है। होरा और जन्म कुंडली से व्यक्ति के जीवन संबंधी फलाफल का विचार किया जाता है।[[ शाखा में धूमकेतु, उल्कापात, शकुन और मुहूर्त का वर्णन और विवेचन है। वराह मिहिर की ‘वृहत संहिता ‘ (400 श्लोक) फलित ज्योतिष का प्रमुख ग्रंथ है। इसमें मकान बनवाने, कुआँ, तालाब खुदवाने, बाग़ लगाने, मूर्ति स्थापना आदि के शगुन दिए गये हैं। विवाह तथा दिग्विजय के प्रस्थान के समय के लिए भी ग्रंथ लिखे हैं। फलित ज्योतिष पर ‘बृहज्जातक’ नामक एक बड़ा ग्रंथ लिखा। ग्रह और नक्षत्रों की स्थिति देखकर मनुष्य का भविष्य बताना इस ग्रंथ का विषय है। खगोलीय गणित और फलित ज्योतिष के मिहिर(सूर्य) समान वराह मिहिर का ज्ञान तीन भागों में बंटा हुआ था –

  1. खगोल
  2. भविष्य विज्ञान
  3. वृक्षायुर्वेद

वृक्षायुर्वेद के विषय में सही गणनाओं से समृद्ध शास्त्र उन्होंने लिखा है। बोबाई, खाद बनाने की विधियाँ, ज़मीन का चुनाव, बीज, जलवायु, वृक्ष, समय निरीक्षण से वर्षा की आगाही आदि वृक्ष, कृषि संबंधी अनेक विषयों का विवेचन किया है। वराह मिहिर का संस्कृत व्याकरण पर अच्छा प्रभुत्व था। होरा शास्त्र, लघु जातक, ब्रह्मस्फुट सिद्धांत, करण, सूर्य सिद्धांत, आदि ग्रंथ वराह मिहिर ने लिखे थे, ऐसा उल्लेख देखने को मिलता है।

पुस्तकें

550 ई. के लगभग इन्होंने तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें  बृहज्जातक,  बृहत्संहिता  और  पंचसिद्धांतिका लिखीं। इन पुस्तकों में त्रिकोणमिति के महत्वपूर्ण सूत्र दिए हुए हैं, जो वराहमिहिर के त्रिकोणमिति ज्ञान के परिचायक हैं।

पंचसिद्धांतिका में वराहमिहिर से पूर्व प्रचलित पाँच सिद्धांतों का वर्णन है। ये सिद्धांत हैं: पोलिशसिद्धांत, रोमकसिद्धांत, वसिष्ठसिद्धांत, सूर्यसिद्धांत तथा पितामहसिद्धांत। वराहमिहिर ने इन पूर्वप्रचलित सिद्धांतों की महत्वपूर्ण बातें लिखकर अपनी ओर से ‘बीज’ नामक संस्कार का भी निर्देश किया है, जिससे इन सिद्धांतों द्वारा परिगणित ग्रह दृश्य हो सकें। इन्होंने फलित ज्योतिष के लघुजातक, बृहज्जातक तथा बृहत्संहिता नामक तीन ग्रंथ भी लिखे हैं। बृहत्संहिता में वास्तुविद्या, भवन-निर्माण-कला, वायुमंडल की प्रकृति, वृक्षायुर्वेद आदि विषय सम्मिलित हैं।

मृत्यु

इस महान् वैज्ञानिक की मृत्यु ईस्वी सन् 587 में हुई। वराहमिहिर की मृत्यु के बाद ज्योतिष गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त (ग्रंथ- ब्रह्मस्फुट सिद्धांत, खण्ड खाद्य), लल्ल (लल्ल सिद्धांत), वराह मिहिर के पुत्र पृथुयशा (होराष्ट पंचाशिका) और चतुर्वेद पृथदक स्वामी, भट्टोत्पन्न, श्रीपति, ब्रह्मदेव आदि ने ज्योतिष शास्त्र के ग्रंथों पर टीका ग्रंथ लिखे।

तथ्य

  • गुप्त काल के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री वराहमिहिर है।
  • इनके प्रसिद्ध ग्रंथ ‘वृहत्संहिता’ तथा ‘पञ्चसिद्धन्तिका’ है।
  • वृहत्संहिता में नक्षत्र-विद्या, वनस्पतिशास्त्रम्, प्राकृतिक इतिहास, भौतिक भूगोल जैसे विषयों पर वर्णन है।
  • राय-चौधरी के अनुसार एरिआके वृहत्संहित में उल्लिखित अर्यक भी हो सकता है।

 

Leave a Comment